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शहर की भाग्दोड़ 


शहर की इस दोड़ मैं दोड़ कर करना क्या है, 
अगर यही जीना है दोस्तों तो मरना क्या है 

पहली बारिश मैं ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है 
भूल गय भीगते हुय टहलना क्या है 

सीरियल के किरदारों का सारा हाल है मालूम 
पर माँ का हाल पूछने की फुरसत कहाँ है 

अब रेत पर नंगे पर टहलते क्यों नहीं 
एक सो आठ है चैनल पर दिल बहलते क्यों नहीं 

इन्टरनेट पर दुनिया से तो टच मैं है 
पर पड़ोस मैं कोन  है जानते तक नहीं 

फसेबूक ट्विटर मोबाइल सब की भरमार है 
मगर जिगरी दोस्त तक पहुचे ऐसे तार कहाँ है 

कब डूबते हुए सूरज को देखा था याद है 
कब जाना था साम का गुजरना क्या है 

तो दोस्तों शहर की इस दोड़ मैं दोड़ कर करना क्या है 
अगर यही जीना है तो मरना क्या है 







दीवारें हैं..

खामोशी हैं...

सन्नाटा है....

...और कुछ साए

एक समन्दर-सा है, वक़्त का

मैं तैरता हूं

घर है मेरा

जहां मैं गूंजता हूं

मेरी ही आंखें

दीवारों पर उभर आती हैं

घूरती हैं

मेरा ही अक्स

हर कहीं उभर आता है

मैं गुज़रता हुआ

मैं ठहरा हुआ

दीवारों की चंद गलियों में

मैं डोलता हुआ

घर है मेरा
जहां मैं गूंजता हूं....

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